तीर्थराज सम्मेदशिखर है,
शाश्वत सिद्धक्षेत्र जग में ।
एक बार जो करे वंदना,
वह भी पुण्यवान सच में ।।
ऊँचा पर्वत पार्श्वनाथ हिल,
नाम से जाना जाता है ।
जिनशासन का सबसे पावन,
तीरथ माना जाता है ।। १ ।।
जब प्रत्यक्ष करें यात्रा,
उस पुण्य का वर्णन क्या करना ।
लेकिन प्रतिदिन भी परोक्ष में,
गिरि का ध्यान किया करना ।।
आँख बन्दकर करो कल्पना,
मेरी यात्रा शुरू हुई ।
प्रातःकाल चले सब यात्री,
जय जयकारा शुरू हुई ।। २ ।।
एक हाथ में छड़ी दूसरे,
में चावल की झोली है ।
ज्यादातर सब पैदल हैं,
पर किसी-किसी की डोली है ।।
कभी न चलने वाले भी,
हिम्मत कर पर्वत चढ़ते हैं ।
पारस प्रभु के पास पहुँचने,
हेतु कदम बढ़ चलते हैं ।। ३ ।।
चढ़ते-चढ़ते आठ किलोमीटर,
का पथ जब तय होता ।
दायें हाथ तरफ तब इक,
चौपड़ा कुंड दर्शन होता ।।
वहाँ दिगम्बर जिनमंदिर,
संस्कृति की अमिट धरोहर है ।
पार्श्वनाथ चन्द्रप्रभु बाहुबलि की
मूर्ति मनोहर हैं ।। ४ ।।
उस मन्दिर में रुककर अपने,
प्रभु का दर्शन कर लेना ।
सुन्दर बनी धर्मशाला में,
इच्छा हो तो ठहर लेना ।।
मंदिर दर्शन करके फिर,
यात्रा प्रारंभ करो अपनी ।
बायें हाथ चलो चढ़ कर जहाँ,
गौतम स्वामी टोंक बनी ।। ५ ।।
यहाँ पहुँचकर ठंडी-ठंडी,
हवा थकान मिटाती है ।
गणधर चरण वंदना से,
यात्रा की शक्ती आती है ।।
प्रथम टोंक यह हुई पास में,
दुतिय टोंक कुंथु जिन की ।
तीर्थंकर क्रम में यह पहली,
टोंक नमूँ कुंथु प्रभु की ।। ६ ।।
इन टोंकों के दर्शन से,
उपवास का फल प्रारंभ हुआ ।
त्रय प्रदक्षिणा देने से,
आगे शुभ गति का बंध हुआ ।।
शुभ भावों से आगे बढ़कर,
टोक तीसरी आती है ।
श्रीनमिनाथ जिनेश्वर की,
वंदना सहज हो जाती है ।।७।।
चौथा नाटक कूट तीर्थंकर,
अरहनाथ का आया है ।
जहाँ करोड़ों मुनियों ने भी,
तपकर शिवपद पाया है ।।
वंदनकर आगे बढ़ने से,
मल्लिनाथ के चरण मिले ।
आगे छठे टोंक पर श्री,
श्रेयांसनाथ पदकमल मिले ।। ८ ।।
इन सबका वंदनकर मैंने,
सिद्धशिला को नमन किया ।
वहाँ विराजे सिद्धों को,
अपने मन में स्मरण किया ।।
थकना नहिं अब पुष्पदंत की,
सप्तम टोंक पे चलना है।
आगे चढ़ने हेतु वहीं से,
आतमशक्ती भरना है ।। ९ ।।
पुष्पदंत प्रभु के चरणों में,
अर्घ्य चढ़ाकर नमन किया ।
और चले आठवीं टोंक पर,
पदमप्रभू का शरण लिया ।।
नवमीं टोंक विराजे श्री,
मुनिसुव्रत जिन के चरणकमल ।
इन सबके पावन पद में,
श्रद्धा से मैंने किया नमन ।। १० ।।
हे भव्यात्मन् !
अब दसवीं चन्द्रप्रभ टोंक पे चलना है।
पहले दौड़-दौड़ कर उतरो,
फिर ऊँचाई चढ़ना है ।।
चन्द्रप्रभ मंदिर में जाकर,
चरणवंदना करना है ।
अपने सारे सुख-दुख को,
प्रभु चरण बैठकर कहना है ।। ११ ।।
अब ग्यारहवीं टोंक पे चलकर,
ऋषभदेव को नमन करो ।
गिरि कैलाश से मुक्त हुए,
यहाँ उनके चरण चिन्ह प्रणमो ।।
श्री शीतल जिनवर की है,
बारहवीं टोंक प्रसिद्ध कही ।
मन-वचन - तन से वंदनकर,
पाओ यात्रा का पुण्य सही ।। १२ ।।
श्री अनंत तीर्थंकर का,
तेरहवाँ कूट स्वयंभू है ।
उनके चरणों में श्रद्धायुत,
शीश झुकाकर वन्दूँ मैं ।।
संभव जिनवर का चौदहवाँ,
धवलकूट माना जाता ।
वासुपूज्य जिनका पन्द्रहवां,
टोंक सभी को सुखदाता ।। १३ ।।
इनको वंदनकर आगे,
प्रभु के पास चलो ।
बन्दर चिन्ह सहित उन प्रभु की,
टोंक पे बन्दर से न डरो ।।
के चरणों में,
कर नमन चलो जलमंदिर तक ।
चढ़ो वहाँ से जहाँ है गौतम,
गणधर प्रभु की टोंक प्रथम ।। १४ ।।
फिर सत्रहवीं टोंक से अपनी,
अगली यात्रा करना है ।
धर्मनाथ प्रभु के चरणों में,
नमन सभी को करना है ।।
सुमतिनाथ का अट्ठारहवाँ,
टोंक है अविचल कूट कहा ।
नौ करोड बत्तीसलाख,
उपवास का फल मिलता है यहाँ ।। १५ ।।
उन्निसवाँ है टोंक शांतिजिन,
का जो यहाँ से मोक्ष गये ।
नौ करोड़ से अधिक मुनी,
इस कुंदकूट से मोक्ष गये ।।
शांतिनाथ के संग सब मुनियों,
को श्रद्धा से नमन किया ।
पुनः बीसवीं टोंक पे जाकर,
वीरप्रभू की शरण लिया ।। १६ ।।
श्री सुपार्श्व तीर्थंकर
इक्कीसवीं टोंक पर राजे हैं ।
कहते हैं यहाँ की मिट्टी से,
रोग सभी नश जाते हैं ।।
इनका वंदन करके पास में,
विमल नाथ की टोंक चलो ।
बाइसवीं इस टोंक को नमकर,
अजितनाथ के निकट चलो ।। १७ ।।
थके कदम से तेइसवीं इस,
टोंक का वंदन कठिन तो है ।
लेकिन यात्रा पूरी करने,
का शुभ भाव हृदय में है ।।
धीरे-धीरे चढ़कर आखिर,
अजितनाथ तक पहुँच गये।
उन चरणों में नमन किया फिर,
नेमिनाथ जी प्राप्त हुए ।। १८ ।।
इस चौबिसवीं टोंक पे
नेमीनाथ चरण को नमन किया ।
पारसनाथ प्रभू पाने हेतू
फिर मैंने गमन किया ।।
स्वर्णभद्र यह टोंक है अंतिम,
यात्रा पूर्ण यहाँ होती ।
पार्श्वनाथ की पूजन करके,
मन सन्तुष्टि यहाँ होती ।। १९ ।।
कुछ क्षण ध्यान करो फिर नीचे,
गुफा में स्थित चरण नमो ।
खुशी-खुशी वंदना पूर्ण कर,
पर्वत से नीचे उतरो ।।
यही वंदना आत्मा की,
भव्यत्व शक्ति बतलाती है ।
तभी चन्दनामती सभी में,
भक्ति स्वयं आ जाती है ।। २० ।।
भगवन् ! इस सम्मेदशिखर का,
पुनः पुनः दर्शन पाऊँ ।
यही भावना है मन में,
सिद्धों के गुण में रम जाऊँ ।।
इसी क्षेत्र से कभी मुझे,
निर्वाण धाम भी मिल जावे ।
सिद्ध भक्ति मेरे जीवन में,
सिद्ध अवस्था दिलवाये ।। २१ ।।